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दुनिया का आकार

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Category: Poetry
Published: 24 November 2009

दुनिया का आकार

जीवन के अंतिम पड़ाव पर हूं मैं
सुना था, दुनिया के आकार के बारे में
सुना था, दुनिया छोटी होती जा रही है
सत्य था वो।
एक गांव, एक क्षेत्र, एक देश एक दुनिया
वही लोग, वही जीव, वही पौधे
एक घर है मेरा
आंखे खुली तो छ्प्पर का एक छेद मैने देखा था
आज जब बंद होने को है
वही मेरी आंखों के सामने है
आंख के खुलने और बंद होने के बीच
घूमती है मेरी दुनिया।

जुलाई, २०००

मत करो मजबूर

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Category: Poetry
Published: 24 November 2009

मत करो मजबूर

कल तो जाना ही है
फिर क्यूं भागूं
दुनिया के पीछे-आगे
बस बैठे रहो
चाहिए क्या
वही तीन वस्तु ना?
तीन क्यों, बस एक ही
दो तो तुमने ख़ुद बना डाला
मूर्खतावश

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मानव

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Category: Poetry
Published: 24 November 2009

मानव

जब जन्मा था तब मैं एक था।
बड़े होने के साथ मेरे टुकड़े होते गए
या शायद मैने खुद को टुकड़े-टुकड़े कर डाला।
हरेक दुनिया अपने मे एक था।
आश्चर्य ! फिर भी सब एक साथ जुड़े थे।
जहां भी जाता था सब साथ चलते थे।
सभी की अपनी आकांक्षाएं थीं।
सभी मुझसे और ज्यादा मांग रहे थे।
इतना ही नहीं,

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