चार शेर सपनों के

सुनता रहूं मैं बात दिल की भी, न सिर्फ मेरे दिमाग रहें।
मैं तुम्हें समझूं, तुम मुझे समझो, अकेले न हम ग़मसाज़ रहें।

न मैं मैं रहूं, न तुम तुम रहो, सिर्फ अब हम हम रहें।
मिलकर चलें अब हम सभी, बाकी न कोई ग़म रहें।

लुत्फ लें हम उन सभी, ग़म का जो आए सामने।
जिंदगी के सारे ग़म का, करके सर कलम रहें।

हम भी बेटे तुम भी बेटे एक ही आदम के हैं।
बेहतर हो के अब हम सभी, अपने घर में साथ रहे।

१३ अगस्त, २०००